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गणेश चतुर्थी
गणेश चतुर्थी का त्योहार हिंदू एवं बहुत से अन्य समुदाय के लोगों द्वारा पूरी दुनिया में मनाया जाता है। गणेश चतुर्थी भाद्रपद के शुक्ल पक्ष की चतुर्थी तिथि को मनाई जाती है। गणेश जी भगवान शंकर और माता पार्वती के बेटे हैं। जिन्हें 108 नामों से जाना जाता है। सभी देवताओं में सबसे पहले भगवान गणेश की ही पूजा की जाती है। भगवान गणेश को विनायक और विघ्नहर्ता के नाम से भी बुलाया जाता है। गणेश जी को ऋद्धि-सिद्धि व बुद्धि का दाता भी माना जाता है। गणेश चतुर्थी को विनायक चतुर्थी भी कहा जाता है।
गणेश चतुर्थी के दिन गणेश जी की मूर्ति को घर पर लाया जाता है। हिंदू धर्म के मुताबिक, किसी भी शुभ काम को करने से पहले भगवान गणेश की पूजा की जाती है। गणेश उत्सव भाद्रपद मास की चतुर्थी से चतर्दर्शी तक यानी दस दिनों तक चलता है। इसके बाद चतुर्दशी को इनका विसर्जन किया जाता है। गणेश चतुर्थी के दिन, भगवान गणेश को बुद्धि, समृद्धि और सौभाग्य के देवता के रूप में पूजा जाता है। गणेश चतुर्थी की शुरुआत वैदिक भजनों, प्रार्थनाओं और हिंदू ग्रंथों जैसे गणेश उपनिषद से होती है। प्रार्थना के बाद गणेश जी को मोदक का भोग लगाकर, मोदक को लोगो में प्रसाद के रूप में बांटा जाता है।
गणेश चतुर्थी क्यों मनाई जाती है?
भाद्रपद शुक्ल पक्ष की चतुर्थी को श्री गणेश जी का जन्म हुआ था इसीलिए हर साल इस दिन गणेश चतुर्थी धूमधाम से मनाई जाती है। भगवान गणेश के जन्म दिन के उत्सव को गणेश चतुर्थी के रूप में जाना जाता है। गणेश चतुर्थी के दिन, भगवान गणेश को बुद्धि, समृद्धि और सौभाग्य के देवता के रूप में पूजा जाता है। यह मान्यता है कि भाद्रपद माह में शुक्ल पक्ष के दौरान भगवान गणेश का जन्म हुआ था। ऐसा माना जाता है कि भगवान गणेश का जन्म मध्याह्न काल के दौरान हुआ था इसीलिए मध्याह्न के समय को गणेश पूजा के लिये ज्यादा उपयुक्त माना जाता है।
इस दिन लोग उत्सव के लिए विभिन्न प्रकार के भोजन तैयार करते हैं। हिंदू धर्म में गणेश जी की पूजा करना बहुत महत्वपूर्ण माना जाता है। ऐसा माना जाता है कि जो लोग पूरी श्रद्धा और विश्वास के साथ उनकी पूजा करते हैं, उन्हें खुशी, ज्ञान, धन और लंबी आयु प्राप्त होगी। और उनकी सभी मनोकामना पूरी होती है। गणेश जी का यह जन्मोत्सव चतुर्थी तिथि से लेकर दस दिनों तक चलता है। अनंत चतुर्दशी के दिन गणेश जी की प्रतिमा विसर्जन के साथ यह उत्सव संपन्न होता है। महाराष्ट्र में यह त्यौहार विशेष रूप से लोकप्रिय होता है।
गणेश चतुर्थी को चंद्रमा को क्यों नहीं देखते हैं?
करवा चौथ से लेकर गणेश चतुर्थी जैसे तमाम व्रत एवं त्योहार चंद्रमा पर आधारित होते हैं। यानी चांद निकलने पर ही इन व्रत और त्योहारों की पूजा संपन्न होती है। यहां तक कि चतुर्थी को चंद्रमा को देखना अशुभ माना जाता है। कहा जाता है भगवान गणेश ने चांद को एक बार श्राप दिया था चतुर्थी के दिन जो भी तुझे देखेगा उस पर कलंक लगेगा। तब से लोग चतुर्थी का चांद नहीं देखते हैं।
गणेश चतुर्थी की कथा
जन्म कथा
एक दिन स्नान करने के लिए भगवान शंकर कैलाश पर्वत से भोगावती जगह पर गए। कहा जाता है कि उनके जाने के बाद मां पार्वती ने घर में स्नान करते समय अपने शरीर के मैल से एक पुतला बनाया था। उस पुतले को मां पार्वती ने प्राण देकर उसका नाम गणेश रखा। पार्वती जी ने गणेश से मुद्गर लेकर द्वार पर पहरा देने के लिए कहा। पार्वती जी ने कहा था कि जब तक मैं स्नान करके बाहर ना आ जाऊं किसी को भी भीतर मत आने देना।
भोगावती में स्नान करने के बाद जब भगवान शिव वापस घर आए तो वे घर के अंदर जाने लगे लेकिन बाल गणेश ने उन्हें रोक दिया। क्योंकि गणपति माता पार्वती के के अलावा किसी को नहीं जानते थे। ऐसे में गणपति द्वारा रोकना शिवजी ने अपना अपमान समझा और भगवान गणेश का सिर धड़ से अलग कर दिया और घर के अंदर चले गए। शिवजी जब अंदर पहुंचे वे बहुत क्रोधित थे। पार्वती जी ने सोचा कि भोजन में विलम्ब के कारण महादेव क्रुद्ध हैं।। इसलिए उन्होंने तुरंत 2 थालियों में भोजन परोसकर शिवजी को बुलाया और भोजन करने का आग्रह किया।
दूसरी थाली देखकर शिवजी ने पार्वती से पूछा, कि यह दूसरी थाली किसके लिए लगाई है? इस पर पार्वती कहती है कि यह थाली पुत्र गणेश के लिए, जो बाहर द्वार पर पहरा दे रहा है। यह सुनकर भगवान शिव चौंक गए और उन्होने पार्वती जी को बताया कि जो बालक बाहर पहरा दे रहा था, मैने उसका सिर धड़ से अलग कर दिया है। यह सुनते ही माता पार्वती दुखी होकर विलाप करने लगीं। जिसके बाद उन्होंने भगवान शिव से पुत्र को दोबारा जीवित करने का आग्रह किया।
तब पार्वती जी को प्रसन्न करने के लिए भगवान शिव ने एक हाथी के बच्चे का सिर काटकर उस बालक के धड़ से जोड़ दिया। पुत्र गणेश को पुन: जीवित पाकर पार्वती जी बहुत प्रसन्न हुईं। यह पूरी घटना जिस दिन घटी उस दिन भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी थी। इसलिए हर साल भाद्रपद की शुक्ल चतुर्थी को गणेश चतुर्थी मनाई जाती है।
गणेश चतुर्थी व्रत की कथा
गणेश जन्म के साथ ही चतुर्थी के व्रत के महत्व को दर्शाने वाली भी एक कथा है जो कि इस प्रकार है। होता यूं है कि माता पार्वती ने भगवान शिव से चौपड़ खेलने का प्रस्ताव किया। अब इस प्रस्ताव को भगवान शिव ने सहर्ष स्वीकार भी कर लिया लेकिन संकट की स्थिति यह थी कि वहां पर कोई हार-जीत का निर्णय करने वाला नहीं था। भगवान शिव ने जब यह शंका प्रकट की तो माता पार्वती ने तुरंत अपनी शक्ति से वहीं पर घास के तिनकों से एक बालक का सृजन किया और उसे निर्णायक बना दिया।
तीन बार खेल हुआ और तीनों बार ही माता पार्वती ने बाजी मारी लेकिन जब निर्णायक से पूछा गया तो उसने भगवान शिव को विजयी घोषित कर दिया। इससे माता पार्वती बहुत क्रोधित हुई और उन्होंनें बालक को एक पैर से अपाहिज होने एवं वहीं कीचड़ में दुख सहने का शाप दे दिया। बालक ने बड़े भोलेपन और विनम्रता से कहा कि माता मुझे इसका ज्ञान नहीं था मुझसे अज्ञानतावश यह भूल हुई, मेरी भूल माफ करें और मुझे इस नरक के जीवन से मुक्त होने का रास्ता दिखाएं।
बालक की याचना से माता पार्वती का मातृत्व जाग उठा उन्होंनें कहा कि जब यहां नाग कन्याएं गणेश पूजा के लिये आयेंगी तो वे ही तुम्हें मुक्ति का मार्ग भी सुझाएंगी। ठीक एक साल बाद वहां पर नाग कन्याएं गणेश पूजन के लिये आयीं। उन नाग कन्याओं ने बालक को श्री गणेश के व्रत की विधि बतायी। इसके पश्चात बालक ने 12 दिनों तक भगवान श्री गणेश का व्रत किया तो गणेश जी ने प्रसन्न होकर उसे ठीक कर दिया जिसके बाद बालक शिवधाम पंहुच गया। जब भगवान शिव ने वहां पंहुचने का माध्यम पूछा तो बालक ने भगवान गणेश के व्रत की महिमा कही। उन दिनों भगवान शिव माता पार्वती में भी अनबन चल रही थी।
मान्यता है कि भगवान शिव ने भी गणेश जी का विधिवत व्रत किया जिसके बाद माता पार्वती स्वयं उनके पास चली आयीं। माता पार्वती ने आश्चर्यचकित होकर भोलेनाथ से इसका कारण पूछा तो भोलेनाथ ने सारा वृतांत माता पार्वती को कह सुनाया। माता पार्वती को पुत्र कार्तिकेय की याद आ रही थी तो उन्होंनें भी गणेश का व्रत किया जिसके फलस्वरुप कार्तिकेय भी दौड़े चले आये। कार्तिकेय से फिर व्रत की महिमा विश्वामित्र तक पंहुची उन्होंनें ब्रह्मऋषि बनने के लिये व्रत रखा। तत्पश्चात गणेश जी के व्रत की महिमा समस्त लोकों में लोकप्रिय हो गयी।
गणेश चतुर्थी पूजा विधि (Ganesh chaturthi Puja Vidhi)
गणेश चतुर्थी के दिन प्रातरू काल स्नान-ध्यान करके गणपति के व्रत का संकल्प लें।
इसके बाद दोपहर के समय गणपति की मूर्ति या फिर उनका चित्र लाल कपड़े के ऊपर रखें।
फिर गंगाजल छिड़कने के बाद भगवान गणेश का आह्वान करें।
एक पान के पत्ते पर सिन्दूर में हल्का सा घी मिलाकर स्वास्तिक चिन्ह बनायें, उसके मध्य में कलावा से पूरी तरह लिपटी हुई सुपारी रख दें।
भगवान गणेश को पुष्प, सिंदूर, जनेऊ और दूर्वा (घास) चढ़ाए।
इसके बाद गणपति को मोदक लड्डू चढ़ाएं,
मंत्रोच्चार से उनका पूजन करें।
गणेश जी की कथा पढ़ें या सुनें, गणेश चालीसा का पाठ करें और अंत में आरती करें।
भगवान की पूजा करें और लाल वस्त्र चौकी पर बिछाकर स्थान दें। इसके साथ ही एक कलश में जलभरकर उसके ऊपर नारियल रखकर चौकी के पास रख दें। दोनों समय गणपति की आरती, चालीसा का पाठ करें। प्रसाद में लड्डू का वितरण करें।
गणेश मंत्र (Ganesh Mantra)
पूजा के समय इन मंत्रों का जाप करें ।
ऊं गं गणपतये नम: मंत्र का जाप करें।
ॐ नमो गणपतये कुबेर येकद्रिको फट् स्वाहा
ॐ एकदन्ताय विद्महे वक्रतुंडाय धीमहि तन्नो बुदि्ध प्रचोदयात।।
गं क्षिप्रप्रसादनाय नम:
ॐ ग्लौम गौरी पुत्र, वक्रतुंड, गणपति गुरु गणेश
ग्लौम गणपति, ऋदि्ध पति। मेरे दूर करो क्लेश।।
गणपति विसर्जन
गणपति विसर्जन भी उतना ही महत्वपूर्ण है जितना गणेश चतुर्थी।
विसर्जन का समापन ‘उत्तरापूजा’ नामक अनुष्ठान के साथ होता है।
जिसके बाद, भगवान गणेश की प्रतिमा को पानी में डुबोया जाता है और आशीर्वाद मांगा जाता है।
भक्त समुद्र में विसर्जित की जाने वाली मूर्तियों को ले जाते समय गणपति बप्पा मोरया जैसे नारे लगाते हैं।
गणेश चतुर्थी के 7 वें, 5 वें या तीसरे दिन गणेश विसर्जन भी किया जा सकता है।
गणेश चतुर्थी का महत्व
इस दिन पूजा व व्रत करने से व्यक्ति को झूठे आरोपों से मुक्ति मिलती है।
भारतीय संस्कृति में गणेश जी को विद्या-बुद्धि का प्रदाता, विघ्न-विनाशक, मंगलकारी, रक्षाकारक, सिद्धिदायक, समृद्धि, शक्ति और सम्मान प्रदायक माना गया है।
अगर मंगलवार को यह गणेश चतुर्थी आए तो उसे अंगारक चतुर्थी कहते हैं। जिसमें पूजा व व्रत करने से अनेक पापों का शमन होता है।
अगर रविवार को यह चतुर्थी पड़े तो भी बहुत शुभ व श्रेष्ठ फलदायी मानी गई है।
इस दौरान गणेश जी को भव्य रूप से सजाकर उनकी पूजा की जाती है।
अंतिम दिन गणेश जी की ढोल-नगाड़ों के साथ झांकियाँ निकालकर उन्हें जल में विसर्जित किया जाता है।
इस त्यौहार को बड़ा पवित्र और महान फल देने वाला बताया गया है।
ईद 2021 – ईद क्यों मनाई जाती है? ईद-उल-फितर और ईद-उल-अज़हा के बारे में
ईद का त्यौहार खुशी का त्यौहार है। हमारा देश भारत दुनिया भर में अपनी विविधता के लिए प्रसिद्ध है। यहां हर प्रकार के धर्मों का हर वर्ग और समुदाय के लोगों का आदर किया जाता है। हमारे देश में पहले से ही सभी धर्मों से जुड़े हुए त्योहारों को भी बड़ी धूम धाम से मनाया जाता रहा है।
जिस प्रकार हिन्दुओं के प्रसिद्ध त्यौहार होली, दीपावली, रक्षा बंधन आदि हैं उसी प्रकार मुस्लिम अथवा इस्लाम धर्म में भी त्योहारों का अति महत्व है और इन्हें बड़े ही धूम धाम से मनाया जाता है। इन्हीं त्योहारों में से एक है ईद-उल-फितर जिसे सामान्य भाषा में ईद (Eid) कहा जाता है। इस दिन लोग अल्लाह से अपने परिवार, रिश्तेदारों और दोस्तों के सुखी जीवन के लिए दुआ करते है।
ईद क्यों मनाई जाती है?
ईद-उल-फितर नाम का यह त्यौहार मुस्लिम समुदाय द्वारा बड़े ही हर्ष और उल्लास के साथ मनाया जाता है। ईद का यह त्यौहार इस्लाम धर्म में बहुत ही खास एवं अहम माना जाता है। इस्लामिक समुदाय में इसे अत्यंत ख़ुशी का दिन माना जाता है। एक इस्लामिक कैलेंडर के अनुसार यह त्यौहार साल
में दो बार मनाया जाता है जिसमें की एक त्यौहार को ईद-उल-फितर कहा जाता है तथा दूसरे त्यौहार को ईद-उल-अज़हा कहा जाता है। ईद-उल-अज़हा को कहीं कहीं बकरा ईद भी कहा जाता है।
ईद 2021 – रमजान 2021 में कब है?
रमज़ान का पहला दिन : 13 अप्रैल 2021, मंगलवार
रमज़ान का आखरी दिन : 12 मई 2021, बुधवार
Eid 2021 – ईद 2021: 13 मई 2021, गुरुवार
Bakra Eid 2021 – बकरीद 20 जुलाई 2021, मंगलवार
ईद-उल-फितर (Eid Ul-Fitr)
ईद-उल-फितर का त्यौहार रमज़ान माह के खत्म होने बाद मनाया जाता है। रमज़ान माह के बाद आने वाली ईद को मीठी ईद भी कहा जाता है। ईद-उल-फितर के दिन विश्व भर में चाँद को देखा जाता है। इस त्यौहार से ठीक पहले रमज़ान के महीने में इस्लामिक समुदाय में रोज़े रखने को बहुत ही विशेष माना गया है।
रमज़ान के पूरे महीने में सभी नियमों का पालन करते हुए रोज़े रखे जाते हैं और फिर रात को ईद-उल-फितर के दिन चाँद का दीदार किया जाता है। इसके आलावा यह त्यौहार भाई-चारे का भी प्रतीक है। इस दिन सभी लोग आपस में गले मिलते हैं और एक दूसरे के प्रति नफरत या गिले शिकवे भुलाकर आपस में प्यार प्रेम से रहते हैं अतः यह त्यौहार दुनिया भर में भाई चारे का और प्यार प्रेम से रहने का सन्देश देता है।
इस त्यौहार में सभी लोग खुद तो खुश होते ही हैं साथ ही दुसरो की ख़ुशी का भी पूरा ख्याल रखते हैं एवं सभी एक दूसरे के बारे में सोचते हुए बड़े ही प्रेम भाव से इस त्यौहार को मनाते हैं। इस त्यौहार में सभी लोग उनकी ज़िन्दगी की आज तक की सभी उलब्धियों के लिए तथा उनके पास जो कुछ भी है सब अल्लाह की देन है ऐसा मान कर अल्लाह का शुक्र अदा करते हैं और सामुदायिक रूप से नमाज़ अदा करते हैं जिसमें वो अल्लाह का इन सब के लिए तहे दिल से शुक्र अदा करते हैं।
इस दिन बाजार भी दुल्हन की तरह सजाये जाते हैं और सभी लोग अपने और अपने परिवार के लिए नए नए कपडे लेते हैं। इस दिन लोग सुबह में फज़िर की सामूहिक नमाज अदा करके वो नये कपड़े पहनते हैं। नये कपडों पर ‘इत्र’ डाला जाता है तथा सिर पर टोपी ओढ़ी जाती है इसके बाद लोग अपने-अपने घरों से ‘नमाजे दोगाना’ पढ़ने ईदगाह अथवा जामा मस्जिद जाते हैं। इस दिन खुशियां घर घर बांटी जाती हैं अर्थात लोग अपने अपने घरों में अनेक तरह के पकवान बनाते हैं और सभी एक दूसरे के घर इन व्यंजनों का आदान प्रदान करते हैं।
इस दिन मुख्य रूप से सिवइंयां और शीर बनाई जाती है। शीर एक पकवान है जो लगभग चावलों की खीर जैसा होता है,जिसे इस्लाम में शीर कहा जाता है। इस त्यौहार के दिन सभी लोग मिठाइयां बांटते हैं और बड़े ही धूम धाम से आपसी मतभेद भूलकर खुशियां मनाते हैं। इस प्रकार से यह त्यौहार मनाया जाता है।
ईद-उल-फितर क्यों मनाया जाता है? Why Eid Ul-Fitr is celebrated?
वैसे तो इस पर्व को मनाये जाने के लेकर कई सारे मत प्रचलित है लेकिन जो इस्लामिक मान्यता सबसे अधिक प्रचलित है उसके अनुसार इसी दिन पैगम्बर मोहम्मद साहब ने बद्र के युद्ध में विजय प्राप्त की थी। तभी से इस पर्व का आरंभ हुआ और दुनियां भर के मुसलमान इस दिन के जश्न को बड़ी ही धूम-धाम के साथ मनाने लगे।
वास्तव में ईद-उल-फितर का यह त्योहार भाईचारे और प्रेम को बढ़ावा देने वाला त्योहार है क्योंकि इस दिन को मुस्लिम समुदाय के लोग दूसरे धर्म के लोगों के साथ भी मिलकर मनाते है और उन्हें अपने घरों पर दावत में आमंत्रित करते तथा अल्लाह से अपने परिवार और दोस्तों के सलामती और बरक्कत की दुआ करते है। यहीं कारण है कि ईद-उल-फितर के इस त्योहार को इतने धूम-धाम के साथ मनाया जाता है।
ईद-उल-फितर का महत्व (Significance of Eid Ul Fitr)
ईद-उल-फितर का त्योहार धार्मिक तथा समाजिक दोनो ही रुप से काफी महत्वपूर्ण है। रमजान के पवित्र महीने के बाद मनाये जाने वाले इस जश्न के त्योहार को पूरे विश्व भर के मुस्लिमों द्वारा काफी धूम-धाम के साथ मनाया जाता है।इस दिन को लेकर ऐसी मान्यता है कि सन् 624 में जंग ए बदर के बाद पैगम्बर मोहम्मद साहब ने पहली बार ईद-उल-फितर का यह त्योहार मनाया था। तभी से इस पर्व को मुस्लिम धर्म के अनुयायियों द्वारा हर साल काफी धूम-धाम के साथ मनाया जाने लगा।
यह पर्व सामाजिक एकता और भाईचारे को बढ़ावा देने में भी अपना एक अहम योगदान देता है। इस पर्व का यह धर्मनिरपेक्ष रुप ही सभी धर्मों के लोगों को इस त्योहार के ओर आकर्षित करता है। इस दिन मुस्लिम समुदाय के लोगों द्वारा अपने घरों पर दावत का आयोजन किया जाता है। इस दावत का मुख्य हिस्सा होता है ईद पर बनने वाली विशेष सेवई, जिसे लोगों द्वारा काफी चाव से खाया जाता है।
इस दिन मुस्लिम समुदाय के लोगों द्वारा दूसरे धर्म के लोगों को भी अपने घरों पर दावत के लिए आमंत्रित किया जाता है। ईद के पर्व का यही प्रेम व्यवहार इस पर्व की खासियत है, जोकि समाज में प्रेम तथा भाई-चारे को बढ़ाने का कार्य करता है।
ईद-उल-अज़हा (Eid Ul Adha – Bakra Eid)
रमज़ान महीने के ख़त्म होने के लगभग 70 दिन या दो महीने के बाद ईद-उल-अज़हा अथवा बकरा ईद मनाई जाती है। यह एक अरबी भाषा का शब्द है जिसका अर्थ है-क़ुर्बानी अर्थात जैसा की नाम से ही स्पष्ट है की बकरा ईद इसलिए कहा जाता है क्योंकि इस दिन मुस्लिम समुदाय द्वारा अल्लाह को बकरे की क़ुर्बानी दी जाती है।
इस दिन बकरे की क़ुर्बानी दिए जाने को इस्लाम धर्म में बलिदान का प्रतीक माना गया है। पूरे विश्व में मुस्लिम अथवा इस्लाम धर्म के लोग इस महीने में मक्का,सऊदी अरब में एकत्रित होते हैं तथा हज मनाते है इसीलिए इसे ईद-उल-अज़हा कहा जाता है जो इसी दिन मनाई जाती है।
वास्तव में यह हज की एक अंशीय अदायगी और मुसलमानों के भाव का दिन है। दुनिया भर में सभी मुस्लिम धर्म के लोगों का एक समूह मक्का में हज करता है तथा नमाज़ अदा करता है। उन दिनों हज की यात्रा पर अनेकों मुस्लिम जाति के लोग सऊदी अरब जाते हैं और हज में शामिल होते हैं। इस्लाम धर्म में इस यात्रा को भी विशेष महत्व दिया जाता है। जो भी व्यक्ति इस यात्रा को कर पाते हैं वो अल्लाह को शुक्राना अदा करते हैं और उनको उच्च दर्जा प्राप्त होता है। इस प्रकार से इस्लाम धर्म में इस त्यौहार को मनाया जाता है।
ईद-उल-अज़हा (बकरा ईद) कब मनाई जाती है?
ईद-उल-अज़हा (बकरा ईद), ईद-उल-फितर (मीठी ईद) के लगभग 70 दिन बाद आती जिसे इस्लामिक कैलेंडर के 12वे महीने धू-अल-हिज्जा की 10वी तारीक को मनाया जाता है। बकरीद का त्यौहार हिजरी के आखिरी महीने जुल हिज्ज में मनाया जाता है। ईद-उल-अज़हा (Bakra Eid) मे चाँद दस दिन पहले दिखता है जबकि ईद-उल-फितर (मीठी ईद) में चाँद एक दिन पहले दिखाई देता। इस्लाम धर्म में त्यौहार चाँद देखकर ही मनाये जाते हैl
बकरी ईद के महीने में सभी देशो के मुसलमान एकत्र होकर मक्का मदीना में (जो की सऊदी अरब में है ) हज (धार्मिक यात्रा) करते हैl इसलिए इसे हज का मुबारक महीना भी कहा जाता है।
ईद-उल-अज़हा (बकरा ईद) क्यों मनाई जाती है? Why Bakra Eid is celebrated?
इस दिन को मनाने के पीछे भी एक कथा भी प्रचलित है। ऐसा माना जाता है की एक दिन अल्लाह हज़रत इब्राहिम जी के सपने में आये थे जिसमें की अल्लाह ने हजरत इब्राहिम जी से सपने में उनकी सबसे प्यारी जो की उन्हें अपने प्राणो से भी अधिक प्रिय हो ऐसी वस्तु की कुर्बानी मांगी। हजरत इब्राहिम को अपने पुत्र जिनका नाम इस्माइल था,से सबसे अधिक स्नेह था और वो अपने बेटे से बहुत प्यार करते थे। वो अल्लाह को सर्वोपरि मानते थे इसलिए अल्लाह की आज्ञा मानते हुए उन्होंने अपने बेटे की कुर्बानी देने का फैसला लिया।
अल्लाह के हुक्म की फरमानी करते हुए हजरत इब्राहिम ने जैसे ही अपने बेटे की कुर्बानी देनी चाही तो अल्लाह ने उनके पुत्र की जगह एक बकरे की क़ुर्बानी दिलवा दी और वो हज़रत इब्राहिम जी से बहुत प्रसन्न हुए। हज़रत इब्राहिम जी के पुत्र इस्माइल फिर आगे चल कर पैगम्बर बने। उसी दिन से मुस्लिम समुदाय में यह त्यौहार मनाया जाने लगा जिसे बकरा ईद अथवा ईद-उल-अज़हा कहा गया। हज़रत इब्राहिम जी के पुत्र इस्माइल फिर आगे चल कर पैगम्बर बने।
यह दोनों प्रकार की ईद, ईद-उल-फितर और ईद-उल-अज़हा (Bakra Eid) इस्लामिक धर्म में बड़े ही उत्साह के साथ मनाई जाती है। ये दोनों ही त्यौहार इस्लाम धर्म में एक महत्त्वपूर्ण स्थान रखते हैं।
Disclaimer
यहां पर कुर्बानी से सम्बंधित जो भी लेख लिखा गया गया है, ऐसी सिर्फ मान्यताएं ही हैं। हम इसकी सच्चाई की पुष्टि बिलकुल भी नहीं करते हैं। हम किसी भी प्रकार से आपकी भावनाओं को आहत नहीं करना चाहते हैं, यह लेख सिर्फ आपको जानकारी देने के लिए लिखा गया है।
छठ पूजा
छठ पूजा एक सांस्कृतिक पर्व है जिसमें घर परिवार की सुख समृद्धि के लिए व्रती सूर्य की उपासना करते हैं। छठ पूजा हिंदू धर्म का बहुत प्राचीन त्यौहार है, जो ऊर्जा के परमेश्वर के लिए समर्पित है जिन्हें सूर्य या सूर्य षष्ठी के रूप में भी जाना जाता है। एक सर्वव्यापी प्राकृतिक शक्ति होने के कारण सूर्य को आदि काल से पूजा जाता रहा है। ॠगवेद में सूर्य की स्तुति में कई मंत्र हैं। दानवीर कर्ण सूर्य का कितना बड़ा उपासक था ये तो आप जानते ही हैं। किवंदतियाँ तो ये भी कहती हैं कि अज्ञातवास में द्रौपदी ने पांडवों की कुल परिवार की कुशलता के लिए वैसी ही पूजा अर्चना की थी जैसी अभी छठ में की जाती है।
छठ पूजा (Chhath Puja) मुख्यतः पूर्वी भारत में मनाया जाने वाला प्रसिद्द पर्व है। बिहार में प्रचलित यह व्रत अब पूरे भारत सहित नेपाल में भी मनाया जाने लगा है। इस पर्व को स्त्री व पुरुष समान रूप से मनाते हैं और छठ मैया से पारिवारिक सुख-समृद्धी तथा मनोवांछित फल प्राप्ति के लिए प्रार्थना करते हैं। कई लोग अपनी मन्नत पूरी होने पर भी यह व्रत उठाते हैं और आजीवन या जब तक संभव हो सके यह व्रत करते हैं।
चार दिन के इस महापर्व में पंडित की कोई आवश्यकता नहीं। पूजा आपको ख़ुद करनी है और इस कठिन पूजा में सहायता के लिए नाते रिश्तेदारों से लेकर पास पडोसी तक शामिल हो जाते हैं। यानि जो छठ नहीं करते वो भी व्रती की गतिविधियों में सहभागी बन कर उसका हिस्सा बन जाते हैं।
छठ व्रत कोई भी कर सकता है। यही वज़ह है कि इस पर्व में महिलाओं के साथ पुरुष भी व्रती बने आपको नज़र आएँगे। भक्ति का आलम ये रहता है कि बिहार जैसे राज्य में इस पर्व के दौरान अपराध का स्तर सबसे कम हो जाता है। जिस रास्ते से व्रती घाट पर सूर्य को अर्घ्य देने जाते हैं वो रास्ता लोग मिल जुल कर साफ कर देते हैं और इस साफ सफाई में हर धर्म के लोग बराबर से हिस्सा लेते हैं।
छठ पूजा 2021 तिथि, मुहूर्त – छठ पूजा कब है? (Chhath Puja 2021 Date in Hindi)
छठ पूजा 2021 का त्यौहार बुधवार, 10 नवंबर को मनाया जाएगा। यह पवित्र त्योहार कार्तिक शुक्ल पक्ष के षष्ठी को मनाया जाता है। मूलत: सूर्य षष्ठी व्रत होने के कारण इसे छठ कहा गया है। यह पर्व वर्ष में दो बार मनाया जाता है। पहली बार चैत्र में और दूसरी बार कार्तिक में। चैत्र शुक्ल पक्ष षष्ठी पर मनाये जाने वाले छठ पर्व को चैती छठ व कार्तिक शुक्ल पक्ष षष्ठी पर मनाये जाने वाले पर्व को कार्तिकी छठ कहा जाता है।
छठ पूजा 4 दिनों तक चलती हैं। इस त्योहार पर छठ मैया को प्रसन्न करने के लिए व्रतधारी 36 घंटे का निर्जल व्रत रखते हैं। इस पर्व का हिंदू धर्म में विशेष महत्व है। छठ पर्व चार दिनों की अवधि में मनाए जाते हैं। इनमें पवित्र स्नान, उपवास और पीने के पानी से दूर रहना, लंबे समय तक पानी में खड़ा होना, और अर्घ्य देना शामिल है।
Chhath Puja 2021 Date (छठ पूजा 2021): 10 नवंबर 2021, बुधवार
छठ पर्व की तारीख (Chhath Puja Dates in Hindi):
08 नवंबर 2021, सोमवार – नहाय-खाय
09 नवंबर 2021, मंगलवार – खरना
10 नवंबर 2021, बुधवार – डूबते सूर्य का अर्घ्य
11 नवंबर 2021, गुरुवार – उगते सूर्य का अर्घ्य
अर्घ्य देने का शुभ मुहूर्त – Chhath Puja Muhurat
सूर्यास्त का समय (संध्या अर्घ्य): – 10 नवंबर, 05:30 PM
सूर्योदय का समय (उषा अर्घ्य) – 11 नवंबर, 06:40 AM
छठ पूजा में प्रयोग होने वाली सामग्री
दौरी या डलिया
सूप – पीतल या बांस का
नींबू
नारियल (पानी सहित)
पान का पत्ता
गन्ना पत्तो के साथ
शहद
सुपारी
सिंदूर
कपूर
शुद्ध घी
कुमकुम
शकरकंद / गंजी
हल्दी और अदरक का पौधा
नाशपाती व अन्य उपलब्ध फल
अक्षत (चावल के टुकड़े)
खजूर या ठेकुआ
चन्दन
मिठाई
इत्यादि
छठ पूजा के चार दिन का वृतांत
चतुर्थी – नहाय खाय
छठ पूजा की शुरुआत कार्तिक शुक्ल पक्ष की चतुर्थी को नहाय खाय के साथ होती है। इस दिवस पर पूरे घर की सफाई कर के उसे पवित्र बनाया जाता है। उसके बाद छठ व्रत स्नान करना होता है। फिर स्वच्छ वस्त्र धारण कर के शुद्ध शाकाहारी भोजन ग्रहण कर व्रत का शुभआरंभ करना होता है।
पंचमी – लोखंडा और खरना
अगले दिन यानी कार्तिक शुक्ल की पंचमी तिथि को व्रत रखा जाता है। इसे खरना कहा जाता है। इस दिवस पर पूरा दिन निर्जल उपवास करना होता है। और शाम को पूजा के बाद भोजन ग्रहण करना होता है। इस अनुष्ठान को खरना भी कहा जाता है। खरना का प्रसाद लेने के लिए आस-पड़ोस के लोगों को भी बुलाया जाता है। प्रसाद में घी चुपड़ी रोटी, चावल की खीर बना सकते हैं।
षष्ठी – संध्या अर्ध्य
सूर्य षष्ठी पर सूर्य देव की विशेष पूजा की जाती है। इस दिवस पर छठ का प्रसाद बनाया जाता है। प्रसाद में चावल के लड्डू, फल, और चावल रूपी साँचा प्रसाद में शामिल होता है। शाम के समय एक बाँस की टोकरी या सूप में अर्ध्य सामग्री सजा कर व्रती, सपरिवार अस्ताचलगामी सूर्य को अर्ध्य अर्पण करने घाट की और प्रयाण करता है, किसी तालाब या नदी किनारे व्रती अर्ध्य दान विधि सम्पन्न करता है। इस दिवस पर रात्रि में नदी किनारे मेले जैसा मनोरम दृश्य सर्जित होता है।
सप्तमी – परना दिन, उषा अर्ध्य
व्रत के अंतिम दिवस पर उदयमान सूर्य को अर्ध्य दिया जाता है। जिस जगह पर पूर्व रात्री पर अस्ताचलगामी सूर्य को अर्ध्य दिया था, उसी जगह पर व्रती (व्रतधारी) इकट्ठा होते हैं। वहीं प्रसाद वितरण किया जाता है। और सम्पूर्ण विधि स्वच्छता के साथ पूर्ण की जाती है।
छठ पूजा के अन्य नाम
छठी माई की पूजा,
डाला छठ,
सूर्य सस्थी,
डाला पूजा छठ पर्व
छठ पूजा का इतिहास और उत्पत्ति (Chhath Puja History)
छठ पूजा हिन्दू धर्म में बहुत महत्व रखती है और ऐसी धारणा है कि राजा (कौन से राजा) द्वारा पुराने पुरोहितों से आने और भगवान सूर्य की परंपरागत पूजा करने के लिये अनुरोध किया गया था। उन्होनें प्राचीन ऋगवेद से मंत्रों और स्त्रोतों का पाठ करके सूर्य भगवान की पूजा की। प्राचीन छठ पूजा हस्तिनापुर (नई दिल्ली) के पांडवों और द्रौपदी के द्वारा अपनी समस्याओं को हल करने और अपने राज्य को वापस पाने के लिये की गयी थी।
ये भी माना जाता है कि छठ पूजा सूर्य पुत्र कर्ण के द्वारा शुरु की गयी थी। वो महाभारत युद्ध के दौरान महान योद्धा था और अंगदेश (बिहार का मुंगेर जिला) का शासक था।
छठ पूजा के दिन छठी मैया (भगवान सूर्य की पत्नी) की भी पूजा की जाती है, छठी मैया को वेदों में ऊषा के नाम से भी जाना जाता है। ऊषा का अर्थ है सुबह (दिन की पहली किरण)। लोग अपनी परेशानियों को दूर करने के साथ ही साथ मोक्ष या मुक्ति पाने के लिए छठी मैया से प्रार्थना करते हैं।
छठ पूजा मनाने के पीछे दूसरी ऐतिहासिक कथा भगवान राम की है। यह माना जाता है कि 14 वर्ष के वनवास के बाद जब भगवान राम और माता सीता ने अयोध्या वापस आकर राज्यभिषेक के दौरान उपवास रखकर कार्तिक महीने के शुक्ल पक्ष में भगवान सूर्य की पूजा की थी। उसी समय से, छठ पूजा हिन्दू धर्म का महत्वपूर्ण और परंपरागत त्यौहार बन गया और लोगों ने उसी तिथि को हर साल मनाना शुरु कर दिया।
छठ पूजा कथा (Chhath Puja Story)
बहुत समय पहले, एक राजा था जिसका नाम प्रियब्रत था और उसकी पत्नी मालिनी थी। वे बहुत खुशी से रहते थे किन्तु इनके जीवन में एक बहुत बचा दुःख था कि इनके कोई संतान नहीं थी। उन्होंने महर्षि कश्यप की मदद से सन्तान प्राप्ति के आशीर्वाद के लिये बहुत बडा यज्ञ करने का निश्चय किया। यज्ञ के प्रभाव के कारण उनकी पत्नी गर्भवती हो गयी। किन्तु 9 महीने के बाद उन्होंने मरे हुये बच्चे को जन्म दिया। राजा बहुत दुखी हुआ और उसने आत्महत्या करने का निश्चय किया।
अचानक आत्महत्या करने के दौरान उसके सामने एक देवी प्रकट हुयी। देवी ने कहा, मैं देवी छठी हूँ और जो भी कोई मेरी पूजा शुद्ध मन और आत्मा से करता है वह सन्तान अवश्य प्राप्त करता है। राजा प्रियब्रत ने वैसा ही किया और उसे देवी के आशीर्वाद स्वरुप सुन्दर और प्यारी संतान की प्राप्ति हुई। तभी से लोगों ने छठ पूजा को मनाना शुरु कर दिया।
छठ पूजा का महत्व (Chhath Puja Significance)
छठ पूजा का सूर्योदय और सूर्यास्त के दौरान एक विशेष महत्व है। सूर्योदय और सूर्यास्त का समय दिन का सबसे महत्वपूर्ण समय है जिसके दौरान एक मानव शरीर को सुरक्षित रूप से बिना किसी नुकसान के सौर ऊर्जा प्राप्त हो सकती हैं। यही कारण है कि छठ महोत्सव में सूर्य को संध्या अर्घ्य और विहानिया अर्घ्य देने का एक मिथक है। इस अवधि के दौरान सौर ऊर्जा में पराबैंगनी विकिरण का स्तर कम होता है तो यह मानव शरीर के लिए सुरक्षित है। लोग पृथ्वी पर जीवन को जारी रखने के साथ-साथ आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए भगवान सूर्य का शुक्रिया अदा करने के लिये छठ पूजा करते हैं।
छठ पूजा का अनुष्ठान, (शरीर और मन शुद्धिकरण द्वारा) मानसिक शांति प्रदान करता है, ऊर्जा का स्तर और प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाता है, जलन क्रोध की आवृत्ति, साथ ही नकारात्मक भावनाओं को बहुत कम कर देता है। यह भी माना जाता है कि छठ पूजा प्रक्रिया के उम्र बढ़ने की प्रक्रिया को धीमा करने में मदद करता है। इस तरह की मान्यताऍ और रीति-रिवाज छठ अनुष्ठान को हिंदू धर्म में सबसे महत्वपूर्ण त्यौहार बनाते हैं।
छठ पूजा में अर्घ्य देने का वैज्ञानिक महत्व
सूरज की किरणों से शरीर को विटामिन डी मिलता है। इसीलिए सदियों से सूर्य नमस्कार को बहुत लाभकारी बताया गया है। वहीं, प्रिज्म के सिद्धांत के मुताबिक सुबह की सूरज की रोशनी से मिलने वाले विटामिन डी से शरीर की प्रतिरोधक क्षमता बेहतर होती है और स्किन से जुड़ी सभी परेशानियां खत्म हो जाती हैं।
छठ पूजा के लाभ (Chhath Puja Benefits)
यह शरीर और मन के शुद्धिकरण का तरीका है जो जैव रासायनिक परिवर्तन का नेतृत्व करता है।
शुद्धिकरण के द्वारा प्राणों के प्रभाव को नियंत्रित करने के साथ ही अधिक ऊर्जावान होना संभव है।
यह त्वचा की रुपरेखा में सुधार करता है, बेहतर दृष्टि विकसित करता है और उम्र बढ़ने की प्रक्रिया को धीमा करता है।
छठ पूजा के भक्त शरीर की प्रतिरोधक क्षमता में सुधार कर सकते हैं।
विभिन्न प्रकार के त्वचा सम्बन्धी रोगो को सुरक्षित सूरज की किरणों के माध्यम से ठीक किया जा सकता है।
यह श्वेत रक्त कणिकाओं की कार्यप्रणाली में सुधार करके रक्त की रोग प्रतिरोधक क्षमता को बढाता है।
सौर ऊर्जा हार्मोन के स्राव को नियंत्रित करने की शक्ति प्रदान करती है।
रोज सूर्य ध्यान शरीर और मन को आराम देता है। प्राणायाम, योगा और ध्यान क्रिया भी शरीर और मन को नियंत्रित करने के तरीके है।
कौन हैं छठी मइया?
कार्तिक मास की षष्टी को छठ मनाई जाती है। छठे दिन पूजी जाने वाली षष्ठी मइया को बिहार में छठी मइया कहकर पुकारते हैं। मान्यता है कि छठ पूजा के दौरान पूजी जाने वाली यह माता सूर्य भगवान की बहन हैं। इसीलिए लोग सूर्य को अर्घ्य देकर छठी मैया को प्रसन्न करते हैं।
वहीं, पुराणों में मां दुर्गा के छठे रूप कात्यायनी देवी को भी छठ माता का ही रूप माना जाता है। छठ मइया को संतान देने वाली माता के नाम से भी जाना जाता है। मान्यता है कि छठ पर्व संतान के लिए मनाया जाता है, खासकर वो जोड़े जिन्हें संतान का प्राप्ति नही हुई। वो छठ का व्रत (Chhath Vrat) रखते हैं, बाकि सभी अपने बच्चों की सुख-शांति के लिए छठ मनाते हैं।